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कमजोर डॉलर

कमजोर डॉलर
यूरो डॉलर के मुकाबले पिछले 20 साल के न्यूनतम स्तर पर है. कुछ दिनों पहले एक यूरो की कीमत लगभग एक डॉलर हो गई थी. जो कि 2009 के आसपास 1.5 डॉलर थी. साल 2022 के पहले 6 महीने में ही यूरो की कीमत डॉलर के मुकाबले 11 फीसदी, येन की कीमत 19 फीसदी और पाउंड की कीमत 13 फीसदी गिरी है. इसी समय के भारतीय रुपये में करीब 6 फीसदी की गिरावट आई है. यानी भारतीय रुपया यूरो, पाउंड और येन के मुकाबले कम गिरा है.

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रुपए की कमजोरी में छिपा है इसकी तंदुरुस्ती का राज

भुवन भास्कर

भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 80.11 का अपना सबसे निचला स्तर छूने के बाद फिलहाल लगभग 50 पैसे मजबूत होकर एक दायरे में स्थिर होता दिख रहा है। लेकिन यह मान लेना कि रुपये के लिए सबसे बुरा दौर खत्म हो गया है, थोड़ी जल्दबाजी होगी। वैसे तो एक देश की मुद्रा का दूसरे देश की मुद्रा के मुकाबले मजबूत या कमजोर होना विशुद्ध तौर पर आर्थिक घटना है, लेकिन राजनीतिक शोशेबाजी और जुमलों के दौर में अक्सर रुपये की कमजोरी को राष्ट्रीय स्वाभिमान पर प्रहार के रूप में भी उछाल दिया जाता है और इसलिए कई बार रुपये का कमजोर डॉलर कमजोर होना सत्तारूढ़ दल के लिए आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक चिंता का सबब बन जाता है।

रुपया यदि डॉलर के मुकाबले मजबूत हो रहा है, तो उसके क्या मायने हैं या फिर कमजोर हो रहा है, उसका क्या मतलब है? चीन दशकों से अपनी मुद्रा युआन को कृत्रिम रूप से कमजोर रख कर अमेरिका के खिलाफ भुगतान संतुलन को अपने पक्ष में रखने में कामयाब रहा है। इसको समझने की आवश्यकता है। जब किसी देश की मुद्रा कमजोर होती है तो इसका मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में उसके उत्पाद ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी भाव पर उपलब्ध होते हैं।

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इसके उलट यदि कोई मुद्रा डॉलर के मुकाबले मजबूत हो रही है, तो उसका आयात सस्ता होगा और निर्यात महंगा होगा। जाहिर है कि भुगतान संतुलन के मामले में इसके कारण मजबूत मुद्रा वाला देश हमेशा नुकसान में रहेगा।

इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। यदि किसी वस्तु का मूल्य भारत में 80 रुपये है तो अमेरिकी बाजार में वह 1 डॉलर का होगा, लेकिन यदि डॉलर के मुकाबले रुपया मजबूत होकर 40 रुपये का हो जाए, तो वही वस्तु अमेरिकी बाजार में 2 डॉलर की हो जाएगी। यह आंकड़ा सिर्फ प्रतीकात्मक और समझाने के लिए है क्योंकि देसी मूल्य में एक्सपोर्ट होने पर ट्रांसपोर्ट, टैक्स इत्यादि कई लागत जुड़ती जाएंगी। लेकिन अनुपात तो इसी तरह रहेगा।

डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत कैसे तय होती है?

किसी भी देश की करेंसी की कमजोर डॉलर कीमत अर्थव्यवस्था के बेसिक सिद्धांत, डिमांड और सप्लाई पर आधारित होती है. फॉरेन एक्सचेंज मार्केट में जिस करेंसी की डिमांड ज्यादा होगी उसकी कीमत भी ज्यादा होगी, जिस करेंसी की डिमांड कम होगी उसकी कीमत भी कम होगी. यह पूरी तरह से ऑटोमेटेड है. सरकारें करेंसी के रेट को सीधे प्रभावित नहीं कर सकती हैं.

करेंसी की कीमत को तय करने का दूसरा एक तरीका भी है. जिसे Pegged Exchange Rate कहते हैं यानी फिक्स्ड एक्सचेंज रेट. जिसमें एक देश की सरकार किसी दूसरे देश के मुकाबले अपने देश की करेंसी की कीमत को फिक्स कर देती है. यह आम तौर पर व्यापार बढ़ाने औैर महंगाई को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है.

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उदाहरण के तौर पर नेपाल ने भारत के साथ फिक्सड पेग एक्सचेंज रेट अपनाया है. इसलिए एक भारतीय रुपये की कीमत नेपाल में 1.6 नेपाली रुपये होती है. नेपाल के अलावा मिडिल ईस्ट के कई देशों ने भी फिक्स्ड एक्सचेंज रेट अपनाया है.

डॉलर दुनिया की सबसे बड़ी करेंसी है. दुनियाभर में सबसे ज्यादा कारोबार डॉलर में ही होता है. हम जो सामान विदेश से मंगवाते हैं उसके बदले हमें डॉलर देना पड़ता है और जब हम बेचते हैं तो हमें डॉलर मिलता है. अभी जो हालात हैं उसमें हम इम्पोर्ट ज्यादा कर रहे हैं और एक्सपोर्ट कम कर रहे हैं. जिसकी वजह से हम ज्यादा डॉलर दूसरे देशों को दे रहे हैं और हमें कम डॉलर मिल रहा है. आसान भाषा में कहें तो दुनिया को हम सामान कम बेच रहे हैं और खरीद ज्यादा रहे हैं.

फॉरेन एक्सचेंज मार्केट क्या होता है?

आसान भाषा में कहें तो फॉरेन एक्सचेंज एक अंतरराष्ट्रीय बाजार है जहां दुनियाभर की मुद्राएं खरीदी और बेची जाती हैं. यह बाजार डिसेंट्रलाइज्ड होता है. यहां एक निश्चित रेट पर एक करेंसी के बदले दूसरी करेंसी खरीदी या बेची जाती है. दोनों करेंसी जिस भाव पर खरीदी-बेची जाती है उसे ही एक्सचेंज रेट कहते हैं. यह एक्सचेंज रेट मांग और आपूर्ति के सिंद्धांत के हिसाब से घटता-बढ़ता रहा है.

करेंसी का डिप्रीशीएशन तब होता है जब फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट पर करेंसी की कीमत घटती है. करेंसी का डिवैल्यूऐशन तब होता है जब कोई देश जान बूझकर अपने देश की करेंसी की कीमत को घटाता है. जिसे मुद्रा का अवमूल्यन भी कहा जाता है. उदाहरण के तौर पर चीन ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया. साल 2015 में People’s Bank of China (PBOC) ने अपनी मुद्रा चीनी युआन रेनमिंबी (CNY) की कीमत घटाई.<

Explainer: 'रुपया गिर नहीं रहा- डॉलर मज़बूत हो रहा' वित्तमंत्री के इस बयान पर क्या कहते हैं आंकड़े और एक्‍सपर्ट?

भारतीय मुद्रा डॉलर के मुकाबले रिकॉर्ड निचले स्‍तर पर है.

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अमेरिकी डॉलर इस समय करीब 22 साल के उच्‍चतम स्‍तर पर ट्रेडिंग कर रहा और इसके मुकाबले दुनियाभर की करेंसी बौनी नजर आ रही ह . अधिक पढ़ें

  • News18Hindi
  • Last Updated : October 17, 2022, 17:35 IST
अमेरिकी डॉलर इस समय 22 साल के सबसे मजबूत स्थिति में है.
दुनियाभर में होने व्‍यापारिक लेनदेन में 40 फीसदी हिस्‍सेदारी डॉलर की रहती है.
अगर डॉलर में 10 फीसदी की मजबूती आई है तो महंगाई 1 फीसदी बढ़ जाएगी.

नई दिल्‍ली. वित्‍तमंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले दिनों डॉलर के मुकाबले कमजोर होती भारतीय मुद्रा का बचाव करते हुए कहा था- ‘रुपया गिर नहीं रहा- डॉलर मज़बूत हो रहा’. उनके इस बयान के अलग-अलग मायने निकाले गए और विपक्ष ने रुपये की अनदेखी और बढ़ते आर्थिक दबाव को लेकर निशाना भी साधा था. हालांकि, वित्‍तमंत्री के बयान को बड़े कैनवास पर देखा जाए तो कमजोर डॉलर यह काफी हद तक सही भी नजर आता है.

डॉलर के मुकाबले ऑल टाइम लो लेवल पर पहुंचा रुपया, घटकर इतनी हुई कीमत

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DollarVsRupee: डॉलर के मुकाबले रुपये की स्थिति लगातार कमजोर हो रही है। सोमवार 54 पैसे की गिरावट के बाद एक डॉलर की कीमत 81.63 रुपये हो गई है। जोकि अबतक का सबसे निचला स्तर है।इसस पहले सोमवार सुबह डॉलर के मुकाबले रुपये का भाव कमजोर डॉलर 81.47 रुपये पर आ गया था। डॉलर 20 साल के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। वहीं, रुपये में आई ऐतिहासिक गिरावट के बाद व्यापारियों ने कहा कि भारतीय रिजर्व बैंक ने गिरावट को रोकने के लिए डॉलर बेचे जाने की संभावना है।

क्यों आती है रुपये में कमजोरी, डॉलर से ही क्यों होती है तुलना

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Dollar Vs Rupee: रुपये में कमजोरी कई वजह से होती है। इसका सबसे आम कारण है डॉलर की डिमांड बढ़ जाना। अंतरराष्ट्रीय बाजार में होने वाली किसी भी उथल-पुथल से निवेशक घबराकर डॉलर खरीदने लगते हैं। ऐसे में डॉलर की मांग बढ़ जाती है और बाकी मुद्राओं में गिरावट शुरू हो जाती है। शेयर बाजार की उथल-पुथल का भी रुपये की कीमत पर असर होता है।

रुपये की तुलना डॉलर से ही क्यों

वैश्विक स्तर पर अधिकांश मुद्राओं की तुलना डॉलर से होती है। रुपये की डॉलर से ही तुलना क्यों होती है? इस सवाल का जवाब छिपा है द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुए ‘ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट’ में। इस समझौते में न्यूट्रल ग्लोबल करेंसी बनाने का प्रस्ताव रखा गया था।

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